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Sunday, April 22, 2012

उतिष्ठ हिन्दी! उतिष्ठ भारत! उतिष्ठ भारती! पुनः उतिष्ठ विष्णुगुप्त!

मैं हिन्दी का पिछला प्यादा, शपथ आज लेता हूँ,
आजीवन हिन्दी लिखने का दायित्व वहन करता हूँ।


रस घोलूँगा इसमें इतने, रस के प्यासे आयेंगे,
वे भी डूब इस रम्य सुरा मे मेरे साकी बन जायेंगे।

कलम बाँटूंगा उन हाथों को जो हाथें खाली होंगी,
वाणी दूंगा मातृभाषा की जो जिह्वा नंगी होगी।

कल-कल करती सुधा बहेगी हर जिह्वा पर हिन्दी की,
नये नये सैनिक आवेंगे सेना मे तब हिन्दी की।

हिन्दी के उस नव-प्रकाश मे फिर राष्ट्र जगमगाएगा,
माँ भारती की जिह्वा पर अमृतचसक लग जायेगा।

हिन्दी बैठी डूब रही है आज फूटी एक नाव पे,
हम भी तो हैं नमक छिड़कते उसके रक्तिम घाव पे।

हिन्दी सरिता सरस्वती है आज लुप्त होने वाली,
विदेशज भाषा तम-प्रवाह में गुप्त कहीं सोने वाली।

देखो, संस्कृत उठ चुकी अब हिन्दी भी उठ जाएगी,
हिन्द देश के भाषा की अस्मिता ही मिट जाएगी।

उधार की भाषा कहना क्या? चुप रहना ही बेहतर होगा,
गूंगे रहकर जीना क्या? फिर मरना ही बेहतर होगा।

हिन्द के बेटों जागो अब तो हिन्दी को शिरोधार्य करो,
राष्ट्र की गरिमा, मातृभाषा का भी कुछ तुम ध्यान करो

छेत्रवाद की राजनीति मे इस भाषा पर न चोट करो,
हिन्दी मे है श्रद्धा हमारी, कहीं और हो कोई खोट कहो।

पंकज जैसी निर्मल हिन्दी दोष न इस पर डालो,
राष्ट्र एक हो भाषा-सूत्र से अब फूट न इसमें डालो।

आज वाचकों करते आह्वाहन हम राष्ट्र के हर कोने से,
लोकभाषा की थाती ले आओ, रुको न एकत्र होने से।

हिन्दी के इस ज्ञानसागर को हमें आज मथना होगा,
फिर से समस्त बृहस्पतियों को एक माला में गुथना होगा।

उठो भाषा के विष्णुगुप्त फिर चमत्कार दिखलाओ,
विदेशज भाषा अलक्षेन्द्र से हमको त्राण दिलाओ।


जाओ, जैसे भी हो चन्द्रगुप्त फिर एक ढूंढ कर लाओ,
हिन्दी के विविध शस्त्रविद्या से सुसज्जित उसे कराओ

राष्ट्र को बाँधो एक सूत्र मे, फिर धननन्दों का शमन करो,
हिन्दी राष्ट्र-भाषा बने, फिर शिखा को बंधन-मुक्त करो।

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